राहत इंदौरी की यादें: आप मंच छोड़ जाते हैं, जिंदा रह जाती है शायरी

शेर-ओ-शायरी, मुशायरा और मंचों को लेकर राहत इंदौरी काफी गंभीर रहते थे. (File)
राहत इंदौरी (Rahat Indori) पिछले 5 दशकों से लगातार शेर-ओ-शायरी की दुनिया में मशगूल रहे. वर्ष 1970 से जो उन्होंने मुशायरे का मंच थामा, मौत से कुछ महीने पहले तक वे उससे जुदा नहीं हुए.
अपने गजल-संग्रह ‘धूप बहुत है’ में राहत इंदौरी ने मुशायरे के मंचों से अपनी मुलाकात का खुलासा किया है. राहत इंदौरी के शब्दों में कहें तो साल 1970 से उन्होंने मंचों पर शेर पढ़ना शुरू कर दिया था. अपनी किताब में वे लिखते हैं, ‘मुझे एक मुशायरे में जनाब कृष्ण बिहारी ‘नूर’ साहब मिले, मुझे पहला ब्रेक उन्होंने ही दिया. नूर साहब मुझे मुंबई भी लेकर गए. मुझे आज तक लखीमपुर का वह मुशायरा याद है, जिसमें अली सरदार जाफरी, जांनिसार अख्तर साहब आदि भी मौजूद थे. वह मेरी जिंदगी का सबसे पहला महत्वपूर्ण मुशायरा था, जिसमें मुझे भरपूर कामयाबी मिली.’
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शेर-ओ-शायरी, मुशायरा और मंचों को लेकर राहत इंदौरी काफी गंभीर रहते थे. उनका मानना था कि जब हम मंच पर अपनी शायरी पेश करते हैं तो उसका समय केवल 20-30 मिनट ही रहता है, लेकिन दूसरे दिन सवेरे जब आप उस शहर को छोड़कर चले जाते हैं तो वहां केवल आपकी शायरी रह जाती है. राहत साहब का मानना था कि चाहे आप शेरों को किसी भी तरह पेश करें, लेकिन आखिरकार आपकी कविता जिंदा रहेगी, शायरी जिंदा रहेगी. प्रस्तुतिकरण महत्वपूर्ण है, लेकिन शायरी उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है. शेर और शायरी को असीम ऊंचाई तक पहुंचाने वाला ये अनोखा शायर आज दुनिया छोड़ गया.